शंकर सिंह भााटिया
उत्तराखंड आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने वाले नेताओं तथा आम लोगों की एक पीढ़ी यह दुनिया छोड़ती चली जा रही है। सन् 1994 में जब उत्तराखंड आंदोलन अपने चरम पर था, तब इन सभी लोगों ने बढ़चढ़कर अपनी भूमिका निभाई थी। एक-एक कर यह पीढ़ी दुनिया छोड़कर जा रही है, लग रहा है एक युग का अंत हो रहा है। मरना और पैदा होना यह सब शास्वत सत्य है, पैदा हुए हर व्यक्ति को एक दिन मरना ही है।
यह प्रक्रिया निरंतर चल भी रही है, लेकिन यह महसूस नहीं होती। लेकिन एक संघर्ष के दौर में शामिल बहुत सारे लोगों को जिन्हें हमने एकजुट होते हुए राज्य के लिए संघर्ष करते हुए देखा है, उनका अवसान एक पीढ़ी के समाप्त होने कीगवाही दे रहा है। जैसे भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की वह पीढ़ी जब दुनिया छोड़ती चली गई, उनके जाने को देश बहुत सिद्दत से अनुभव करता रहा, उसी तरह उत्तराखंड राज्य के लिए लड़ने वालों का इस दुनिया से जाना भी कम से कम उस दौर को जिसने देखा वह गंभीरता से महसूस करता है।
दिवाकर भट्ट उत्तराखंड आंदोलन के एक गरमपंथी नेता, जिस आंदोलन में शामिल हो जाए अपनी छाप छोड़ने वाले नेता के तौर पर पहचान रखने वाले दिवाकर भट्ट का जाना
आंदोलन के उस दौर को एक बार फिर जीवंत कर गया। दिवाकर भट्ट का नाम आते ही एक ऐसे नेता की छवि सामने आ जाती है, जो हमेशा एक गरम
दल के नेता के नेता रहे। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की तरह उत्तराखंड आंदोलन में कई नेताओं की इस तरह की पहचान रही, दिवाकर भट्ट ऐसे गुट का नेतृत्व करते थे।
उत्तराखंड आंदोलन के प्रणेता उत्तराखंड क्रांति दल के इस नेता की यह छवि पूरे आंदोलन में बनी रही। उत्तराखंड के अंदर निवास कर रहे गरमपंथी युवाओं के लिए ही नहीं, बल्कि प्रवासी उत्तराखंडी युवाओं में भी दिवाकर भट्ट का जबरदस्त आकर्षण देखा गया।

इसीलिए उत्तराखंड के गांधी कहे जाने वाले इंद्रमणि बडोनी ने एक सम्मेलन में दिवाकर भट्ट को फील्ड मार्शल की उपाधि दी थी। अपनी इसी गरम दलीय प्रवृत्ति के अनुसार दिवाकर भट्ट ने उत्तराखंड आंदोलन में करंट लाने के लिए श्रीयंत्र टापू आंदोलन और खैंट पर्वत पर अनशन कर बीच-बीच में उत्तराखंड आंदोलन को गरम करने के प्रयास किए थे। जिसमें उन्हें काफी हद तक सफलता मिली तो श्रीयंत्र टापूआंदोलन में दो युवाओं को इस उग्रता की भेंट चढ़ना पड़ा।
पुलिस की ज्यादती की वहज से दो युवा अलकनंदा में बह गए और शहीद हो गए। उत्तराखंड आंदोलन का सहज नेतृत्व इंद्रमणि बडोनी कर रहे थे, काशी सिंह ऐरी उनके सबसे
विश्वस्त सहयोगी थे। जो एक गांधीवादी आंदोलन की तरह चलता रहा। लेकिन दल के अंदर दिवाकर भट्ट और उनके युवा सहयोगी आंदोलन को गरमपंथी बनाते रहे। हालांकि किसी भी आंदोलन में गरमपंथी और नरमपंथी नेताओं का समावेश जरूर होता है। यह आंदोलन को संतुलित करने का काम करता है। लेकिन इसके लिए आपसी तालमेल का होना जरूरी होता है।
उत्तराखंड आंदोलन में इस संतुलन का थोड़ा अभाव दिखाई दिया। दिवाकर भट्ट के इसी गरमपंथी रुख की वजह से आंदोलन के बीच उक्रांद में दो बार टूट हो गई। हांलाकि इसके लिए केवल एक पक्ष को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन संतुलन के अभाव के कारण आंदोलन के सामने यह दिक्कत आई। जिस वजह से कई बार आंदोलन कमजोर होता दिखाई दिया।
दिवाकर भट्ट इस दौर में तीन बार कीर्तिनगर के ब्लाक प्रमुख रहे। देवप्रयाग से विधायक रहे और राज्य सरकार में मंत्री रहे। नारायण दत्त तिवारी की सरकार ने आधे-अधूरे मन से जिस भू कानून का गठन किया था, खंडूड़ी सरकार ने उसे कड़ा करने का दावा किया था।
उस सरकार में राजस्व मंत्री के तौर पर दिवाकर भट्ट की भूमिका से कोई इंकार नहीं कर सकता। दिवाकर भट्ट जो भी रहे हों, लेकिन उत्तराखंड राज्य की लड़ाई लड़ने के लिए निस्वार्थ भाव से अपना सर्वस्व दांव पर लगाने वाले इन नेताओं की पीढ़ी के चर्चित गरमपंथी नेता के रूप में हमेशा याद किए जाएंगे।


