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Uttarakhand Newsउत्तरकाशी

दिलाराम से बालाहिसार: देहरादून और मसूरी में पठानों की अफगान विरासत

Last updated: June 22, 2025 9:33 pm
Debanand pant
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9 Min Read
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शीशपाल गुसाईं

जब अफगानिस्तान के पठान देहरादून और मसूरी पहुँचे या अंग्रेजों ने उन्हें विजयी करके जबरन लाया, तो पठानों ने अपनी मातृभूमि की सांस्कृतिक विरासत को यहाँ अमर कर दिया। देहरादून का दिलाराम बाजार और मसूरी का बालाहिसार, जो अफगानिस्तान में भी विख्यात हैं, उनकी गौरवशाली पहचान को आज भी जीवंत करते हैं।

दिलाराम बाज़ार का अफगानिस्तान से संबंध: दिलाराम बाजार, देहरादून का एक महत्वपूर्ण व्यापारिक क्षेत्र, पठान समुदाय के प्रभाव को दर्शाता है। “दिलाराम” एक फारसी शब्द है, जिसका अर्थ “दिल को सुकून देने वाला” होता है। यह नाम अफगानिस्तान और पश्तून संस्कृति में प्रचलित फारसी प्रभाव को दर्शाता है, क्योंकि पठान समुदाय में फारसी और पश्तो का मिश्रण आम था।

अफगानिस्तान में “दिलाराम” नाम के स्थान का उल्लेख मिलता है, विशेष रूप से हेरात प्रांत में, जो एक प्राचीन व्यापारिक और सांस्कृतिक केंद्र है। देहरादून के दिलाराम बाजार का नामकरण संभवतः पठानों द्वारा अपनी मातृभूमि की स्मृति को जीवित रखने के लिए किया गया। यह प्रवासी समुदायों में आम है कि वे नई भूमि पर अपनी मूल संस्कृति के नामों को अपनाते हैं।

मसूरी के बालाहिसार का अफगानिस्तान से संबंध : अफगानिस्तान के काबुल और पेशावर में बालाहिसार किला पठान इतिहास का महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह किला सिकंदर महान के समय से लेकर मुगल और दुर्रानी साम्राज्य तक रणनीतिक महत्व रखता था। मसूरी के बालाहिसार का नामकरण पठानों की सैन्य और सांस्कृतिक विरासत को दर्शाता है, जो उन्होंने देहरादून और मसूरी में स्थापित की।

पठान, जिन्हें पश्तून या अफगान भी कहा जाता है, अफगानिस्तान और उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान के सबसे बड़े और सबसे प्रभावशाली जातीय समूहों में से एक हैं। उनकी ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान न केवल अफगानिस्तान की रीढ़ रही है, बल्कि दक्षिण एशिया और मध्य एशिया के इतिहास में भी महत्वपूर्ण योगदान देती है। पठानों का इतिहास उनकी स्वतंत्रता, वीरता, और पश्तूनवाली (पठान संहिता) जैसे सांस्कृतिक मूल्यों से गहराई से जुड़ा हुआ है। आइए, इस समुदाय के इतिहास को समझते हैं।

प्राचीन उत्पत्ति और पौराणिक कथाएँ
पठानों की उत्पत्ति को लेकर इतिहासकारों और विद्वानों में मतभेद हैं, लेकिन पठान स्वयं अपनी उत्पत्ति को प्राचीन काल से जोड़ते हैं। उनकी लोककथाओं और मौखिक परंपराओं के अनुसार, पठान अफगान बख्तियार के वंशज हैं, जो इस्राइल के खोए हुए कबीलों में से एक से संबंधित माने जाते हैं। कुछ पठान अपनी वंशावली को पैगंबर मुहम्मद के साथी खालिद बिन वालिद से भी जोड़ते हैं। हालांकि, ये कथाएँ अधिकांशतः पौराणिक हैं और ऐतिहासिक प्रमाणों से पुष्टि नहीं होतीं।

पुरातात्विक और भाषाई साक्ष्यों के आधार पर, पठानों की उत्पत्ति ईरानी मूल की इंडो-आर्यन या इंडो-ईरानी जनजातियों से मानी जाती है, जो दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व में मध्य एशिया और अफगानिस्तान के क्षेत्रों में बस गए थे। पठानों की भाषा, पश्तो, एक पूर्वी ईरानी भाषा है, जो उनकी प्राचीन जड़ों को दर्शाती है।

मध्यकाल में पठान: साम्राज्यों और स्वतंत्रता का दौर
मध्यकाल में पठान विभिन्न साम्राज्यों के अधीन रहे, लेकिन उनकी स्वतंत्रता की भावना और कबीलाई संरचना ने उन्हें हमेशा एक विशिष्ट पहचान दी। सातवीं सदी में इस्लाम के आगमन के साथ, पठानों ने इस्लाम को अपनाया, जो उनकी संस्कृति और सामाजिक व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा बन गया। इस्लाम ने उनकी पश्तूनवाली संहिता को और समृद्ध किया, जिसमें आतिथ्य, बदला, और सम्मान जैसे मूल्य शामिल हैं।

गजनवी और गौरी साम्राज्य: 10वीं से 12वीं सदी तक, पठान क्षेत्र गजनवी और गौरी साम्राज्यों का हिस्सा रहा। गजनवी शासक महमूद गजनवी और बाद में गौरी शासक मुहम्मद गोरी ने पठान क्षेत्रों को अपने साम्राज्य में शामिल किया।

इस दौरान कई पठान योद्धा इन साम्राज्यों की सेनाओं में शामिल हुए और भारत के विभिन्न हिस्सों में अपनी छाप छोड़ी। लोदी और सूरी वंश: 15वीं और 16वीं सदी में, पठानों ने भारत में अपनी सत्ता स्थापित की। दिल्ली सल्तनत के लोदी वंश (1451-1526) और बाद में सूरी वंश (1540-1556) के शासक पठान मूल के थे। बख्तियार खिलजी, शेरशाह सूरी, और अन्य पठान शासकों ने न केवल सैन्य बल्कि प्रशासनिक सुधारों के माध्यम से अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया। शेरशाह सूरी, जिन्हें आधुनिक भारत के राजमार्गों और डाक प्रणाली का जनक माना जाता है, पठानों के प्रशासनिक कौशल का प्रतीक हैं।

मुगल और पठान: सहयोग और संघर्ष

मुगल साम्राज्य के उदय के साथ (16वीं सदी), पठानों का मुगलों के साथ एक जटिल रिश्ता रहा। कुछ पठान कबीले, जैसे खट्टक और यूसुफजई, मुगलों के अधीन सेवा करते थे, जबकि अन्य, जैसे अब्दाली और गिलजई, अपनी स्वतंत्रता के लिए मुगलों से संघर्ष करते रहे। इस दौरान, पठान क्षेत्रों में कई विद्रोह हुए, जो उनकी स्वायत्तता की भावना को दर्शाते हैं। 17वीं सदी में, पठान कवि और योद्धा खुशहाल खान खट्टक ने पश्तो साहित्य और पठान राष्ट्रवाद को एक नई दिशा दी। उनकी कविताएँ पठान स्वतंत्रता और गौरव का प्रतीक बनीं। खुशहाल खान ने मुगल सम्राट औरंगजेब के खिलाफ विद्रोह किया और पठान कबीलों को एकजुट करने का प्रयास किया।

अहमद शाह दुर्रानी और अफगान साम्राज्य
18वीं सदी में, पठान इतिहास में एक स्वर्ण युग आया, जब अहमद शाह अब्दाली (जिन्हें अहमद शाह दुर्रानी भी कहा जाता है) ने 1747 में आधुनिक अफगानिस्तान की नींव रखी। दुर्रानी साम्राज्य, जिसे अफगान साम्राज्य भी कहा जाता है, ने पठान कबीलों को एकजुट किया और अफगानिस्तान को एक शक्तिशाली क्षेत्रीय शक्ति बनाया। अहमद शाह ने भारत, ईरान, और मध्य एशिया में कई सैन्य अभियान चलाए, जिनमें 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई सबसे प्रसिद्ध है, जिसमें उन्होंने मराठों को हराया। दुर्रानी साम्राज्य ने पठान संस्कृति, कला, और साहित्य को बढ़ावा दिया। इस दौर में कंधार, काबुल, और पेशावर जैसे शहर पठान सभ्यता के केंद्र बने। हालांकि, अहमद शाह की मृत्यु के बाद, साम्राज्य में आंतरिक कलह और बाहरी आक्रमणों के कारण कमजोरी आई।

औपनिवेशिक काल और डूरंड रेखा

19वीं सदी में, पठान क्षेत्र ब्रिटिश और रूसी साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच ‘ग्रेट गेम’ का केंद्र बन गया। ब्रिटिश साम्राज्य ने अफगानिस्तान को अपने अधीन करने के लिए कई युद्ध लड़े, जिनमें प्रथम और द्वितीय एंग्लो-अफगान युद्ध (1839-1842 और 1878-1880) शामिल हैं। पठानों ने इन युद्धों में अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए वीरतापूर्वक लड़ाई लड़ी। 1893 में, डूरंड रेखा ने पठान क्षेत्र को दो हिस्सों में बाँट दिया—एक हिस्सा ब्रिटिश भारत (वर्तमान पाकिस्तान) में और दूसरा अफगानिस्तान में। इस कृत्रिम सीमा ने पठान कबीलों को विभाजित कर दिया और उनकी एकता को कमजोर किया। डूरंड रेखा आज भी अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच विवाद का कारण बनी हुई है।

आधुनिक काल और पठान
20वीं सदी में, पठानों ने अफगानिस्तान और पाकिस्तान दोनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अफगानिस्तान में, पठान शासकों ने 1929 तक दुर्रानी वंश के तहत शासन किया। 1973 में राजशाही के अंत और 1978 में कम्युनिस्ट शासन के उदय के बाद, पठानों ने सोवियत-अफगान युद्ध (1979-1989) में मुजाहिदीन के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस युद्ध ने पठान योद्धाओं की वीरता को फिर से विश्व के सामने लाया। हालांकि, 1990 के दशक में तालिबान के उदय ने पठान इतिहास में एक नया और विवादास्पद अध्याय जोड़ा। तालिबान, जो मुख्य रूप से पठान मूल का था, ने अफगानिस्तान में कट्टरपंथी शासन स्थापित किया। 2001 में अमेरिकी हस्तक्षेप के बाद, पठान क्षेत्र फिर से वैश्विक ध्यान का केंद्र बन गया।

भारत के संदर्भ में पठान
भारत में, पठान समुदाय ने विशेष रूप से उत्तर प्रदेश, बिहार, और देहरादून जैसे क्षेत्रों में अपनी छाप छोड़ी। देहरादून का दिलाराम बाजार, मसूरी का बालाहिसार जैसा कि पहले चर्चा की गई, अफगान पठानों की स्मृति को जीवित रखता है। भारत में पठान व्यापार, कारीगरी (विशेष रूप से फर्नीचर और हस्तकला), और राजनीति में सक्रिय रहे हैं।

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