राजेंद्र नगर, देहरादून का एक ऐसा क्षेत्र है, जो न केवल अपनी आधुनिक शहरी पहचान के लिए जाना जाता है, बल्कि इसके पीछे सिरमौर रियासत और चाय बागानों का एक समृद्ध ऐतिहासिक ताना-बाना भी छिपा है।
यह क्षेत्र सिरमौर के अंतिम राजा, राजेंद्र प्रकाश के नाम पर बसा है, और इसकी कहानी न केवल ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह उस दौर की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक गतिशीलता को भी दर्शाती है, जब भारत औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता की ओर बढ़ रहा था।
सिरमौर रियासत और राजेंद्र नगर की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
सिरमौर, हिमाचल प्रदेश का एक प्राचीन रियासत थी, जिसकी स्थापना 10वीं शताब्दी में मानी जाती है। यह रियासत अपने शासकों की दूरदर्शिता, साहस और सांस्कृतिक धरोहर के लिए जानी जाती थी। 19वीं सदी में, जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में अपनी जड़ें जमा रही थी, सिरमौर के राजा शमशेर प्रकाश (शासनकाल: 1856-1898) ने न केवल अपनी रियासत को मजबूत किया, बल्कि आर्थिक नवाचारों को भी अपनाया। उनके शासनकाल में सिरमौर ने आधुनिकता की ओर कदम बढ़ाए, और इसका एक उदाहरण था कौलागढ़ में चाय बागानों का विकास।
वर्ष 1857 के आसपास, सिरमौर रियासत के अधीन एन्नफील्ड ग्रांट में बैतवाला, गंगभेवा जैसे गांव शामिल थे। इस क्षेत्र में 692 एकड़ का भूभाग जनरल आर. मैक्फरसन ने 1,40,000 रुपये में एन्नफील्ड टी कंपनी से खरीदा था। यह वह दौर था जब चाय का उत्पादन भारत में एक उभरता हुआ उद्योग था, और ब्रिटिश शासकों ने इसे बढ़ावा देने के लिए बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहण किए। लेकिन, जैसे ही ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद भारत से अपना कारोबार समेटना शुरू किया, सिरमौर के राजा शमशेर प्रकाश ने एक दूरदर्शी कदम उठाया। उन्होंने 1867 में कौलागढ़ चाय बागान को 2000 पाउंड स्टर्लिंग में सरकार से खरीद लिया। यह बागान न केवल उनकी आर्थिक सूझबूझ का प्रतीक था, बल्कि यह सिरमौर रियासत की स्वायत्तता और आत्मनिर्भरता को भी दर्शाता था।
राजा शमशेर प्रकाश से राजा राजेंद्र प्रकाश तक
राजा शमशेर प्रकाश ने न केवल चाय बागानों को विकसित किया, बल्कि सिरमौर को एक प्रगतिशील रियासत के रूप में स्थापित किया। उनके बाद उनके पुत्र, राजा अमर प्रकाश, और फिर उनके पौत्र, राजा राजेंद्र प्रकाश ने इस विरासत को आगे बढ़ाया। राजा राजेंद्र प्रकाश का राजतिलक 1934 में हुआ था, और वे सिरमौर के अंतिम राजा थे। उनकी मृत्यु 1964 में हुई, और उनके कोई पुत्र नहीं था। उनकी एकमात्र बेटी, पद्मिनी देवी, का विवाह जयपुर के महाराजा भवानी सिंह के साथ हुआ, जो इस रियासत की कहानी को एक नए अध्याय की ओर ले गया।
कौलागढ़ चाय बागान, जो राजा शमशेर प्रकाश की देन था, लंबे समय तक सिरमौर राजपरिवार की व्यक्तिगत संपत्ति रहा। 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद भी यह बागान राजा राजेंद्र प्रकाश के पास रहा। लेकिन समय के साथ, जैसे-जैसे भारत में रियासतों का विलय और आधुनिकीकरण हुआ, इस बागान को राजा की सहमति से बेच दिया गया। यह क्षेत्र धीरे-धीरे एक शहरी बस्ती में बदल गया, जो आज देहरादून की पॉश कॉलोनी, राजेंद्र नगर के रूप में जाना जाता है। इस कॉलोनी का नाम राजा राजेंद्र प्रकाश के सम्मान में रखा गया, जो सिरमौर रियासत के अंतिम शासक थे।
सिरमौर रियासत की उत्पत्ति और प्रारंभिक इतिहास
सिरमौर रियासत, जिसे कभी ‘नाहन’ रियासत के नाम से भी जाना जाता था, हिमाचल प्रदेश के दक्षिण-पूर्वी हिस्से में स्थित थी। इसका नाम ‘सिरमौर’ शब्द से लिया गया है, जिसका अर्थ है ‘शेरों का शीर्ष’ या ‘शेरों की भूमि’, जो इस क्षेत्र की भौगोलिक और सांस्कृतिक महत्ता को दर्शाता है। ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार, सिरमौर की स्थापना 10वीं शताब्दी में राजपूत वंश के एक शासक द्वारा की गई थी। परंपरागत कथाओं के अनुसार, यह रियासत सूरजवंशी राजपूतों से संबंधित थी, जिनका मूल उद्गम राजस्थान के राजपूताना क्षेत्र से माना जाता है।
रियासत की राजधानी शुरू में सिरमौर शहर थी, लेकिन बाद में इसे नाहन में स्थानांतरित कर दिया गया, जो आज भी सिरमौर जिले का मुख्यालय है। सिरमौर का भौगोलिक स्थान—हिमालय की तलहटी में, यमुना और गंगा की सहायक नदियों के बीच—इसे रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण बनाता था। यह क्षेत्र प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध था, और इसकी उर्वर भूमि ने कृषि और बाद में चाय बागानों के विकास को बढ़ावा दिया।
मध्यकालीन इतिहास और मुगल प्रभाव
मध्यकाल में, सिरमौर रियासत ने कई पड़ोसी राज्यों और बाहरी शक्तियों के साथ संबंध बनाए। मुगल काल में, सिरमौर के शासकों ने मुगल सम्राटों के साथ एक नाजुक संतुलन बनाए रखा। कुछ अवसरों पर, सिरमौर ने मुगलों को कर (टैक्स) दिया, लेकिन अपनी स्वायत्तता को बरकरार रखा। यह वह दौर था जब सिरमौर के शासकों ने अपनी सैन्य शक्ति को मजबूत किया और स्थानीय जनजातियों के साथ गठबंधन बनाए।
17वीं और 18वीं सदी में, सिरमौर ने सिखों और गोरखाओं के आक्रमणों का सामना किया। खासकर, गोरखा आक्रमण (1803-1815) के दौरान सिरमौर रियासत पर संकट के बादल मंडराए। गोरखाओं ने 1804 में सिरमौर पर कब्जा कर लिया, और तत्कालीन राजा कर्म प्रकाश को अपनी राजधानी नाहन छोड़कर भागना पड़ा। लेकिन, 1815 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने गोरखाओं को हराकर सिरमौर को मुक्त करवाया। इसके बाद, सिरमौर के शासक ब्रिटिश संरक्षण में आ गए, और रियासत को ‘संरक्षित रियासत’ का दर्जा मिला।
राजेंद्र नगर, जो कभी सिरमौर रियासत के हरे-भरे चाय बागानों की गोद में बसा था, आज आधुनिकता की चकाचौंध में डूबा हुआ है, जहां कंक्रीट के जंगल और विशाल इमारतें समय के बदलते रंगों की कहानी कहती हैं। इस क्षेत्र का गौरवशाली इतिहास, जहां कभी चाय की पत्तियों की सुगंध हवाओं में तैरती थी, अब भारत के ऊर्जा क्षेत्र के दिग्गज, ऑयल एंड नेचुरल गैस कॉरपोरेशन की भव्य उपस्थिति से और निखर उठा है। 14 अगस्त 1956 में देहरादून के तेल भवन में स्थापित ओएनजीसी का मुख्यालय न केवल भारत के तेल और गैस उद्योग का प्रतीक है, बल्कि यह उस दूरदर्शिता का भी साक्षी है, जिसने देश की ऊर्जा आत्मनिर्भरता के सपने को साकार किया। तेल भवन जिसे पटियाला हाउस के नाम से जाना जाता था, में बनाया गया। राजेंद्र नगर में ओएनजीसी की यह शानदार मौजूदगी, सिरमौर की ऐतिहासिक धरोहर और आधुनिक भारत के औद्योगिक वैभव के बीच एक सेतु बनाती है, जो अतीत की स्मृतियों और वर्तमान की महत्वाकांक्षाओं को एक साथ पिरोती है।