चिपको आन्दोलन उत्तराखंड का एक ऐसा आन्दोलन जिसने विश्व को अंग्वाल के जरिये पेड़ों को बचाने और पर्यावरण संरक्षण का अनोखा मंत्र दिया। गूगल ने डूडल में चिपको आन्दोलन को आज फोटो समर्पित की है, आज गूगल भी चिपको अन्दोलन की 45 वीं एनिवर्सिरी मना रहा है साथ ही दुनिया में भी यह आन्दोलन पर्यावरण के सरक्षण में सबसे बड़ा आन्दोलन माना जाता है, इसलिए हम आपको इस आन्दोलन से रोचक जानकारी आपके लिए लेकर आये हैं, हमें उम्मीद है आप इसे जरूर पढ़ेंगे और शेयर भी करेंगे क्योंकि ये कहानी हर किसी को सुनानी है, क्योंकि इसमें वो मिठास है जिसे पूरी दुनिया को बताना जरूरी है। तो आगे बढ़ते हैं-
पूरी दुनिया में चिपको आन्दोलन का नाम फेमस है। इस आन्दोलन का उदय विपरीत परस्थितियों में उस समय हुआ जब उत्तराखंड गढ़वाल के रामपुर- फाटा, मंडल घाटी, से लेकर जोशीमठ की नीति घाटी के हरे भरे जंगलों में मौजूद लाखों पेड़ो को काटने की अनुमति शासन और सरकार द्वारा दी गई।
इस फरमान ने उत्तराखंड की मात्रशक्ति से लेकर पुरुषों को उद्वेलित कर दिया था। वेसे तो इस आन्दोलन की शुरुहात अप्रैल 1973 में ही हो गयी थी जब लोगों ने मंडल के जंगलों को बचाया गया और फिर रामपुर फाटा के जंगलो को कटने से बचाया गया था। लेकिन जो ख़ास था और इस आन्दोलन का नाम जहां से विख्यात हुआ वो था इसके बाद सरकार द्वारा रैणी के हर भरे जंगल के लगभग 2500 पेड़ो को हर हाल में काटने का फैसला। जिसके लिए साइमन गुड्स कंपनी को इसका ठेका दे दिया गया था।
18 मार्च 1974 को साइमन कम्पनी के ठेकेदार से लेकर मजदुर अपने खाने पीने का बंदोबस्त कर जोशीमठ पहुँच गए थे। 24 मार्च को जिला प्रसाशन द्वारा बड़ी चालकी से एक रणनीति बनाई गई जिसके तहत चिपको आदोलन के सबसे बड़े योद्धा चंडी प्रसाद भट्ट और अन्य को जोशीमठ-मलारी सडक में कटी भूमि के मुवाअजे दिलाने के लिए बातचीत हेतु गोपेश्वर बुलाया गया।
जिसमे यह तय हुआ की सभी लोगो के 14 साल से अटके भूमि मुवाअजे को 26 मार्च के दिन चमोली तहसील में दिया जायेगा। वहीँ प्रशासन नें दूसरी और चिपको के सबसे बड़े सारथी गोविन्द सिंह रावत को जोशीमठ में ही उलझाए रखा ताकि कोई भी रैणी न जा पाये। 24 मार्च को सभी मजदूरो को रैणी जाने का परमिट दे दिया गया।
26 मार्च 1974 को रैणी और उसके आस पास के सभी पुरुष भूमि का मुवाअजा लेने के लिए चमोली आ गए और गांव में केवल महिलायें और बच्चे, बूढ़े मौजूद थे। अपने अनुकूल समय को देखकर साइमन कम्पनी के मजदूर और ठेकेदार ने रैणी के जंगल में धावा बोल दिया। और जब गांव की महिलाओं ने मजदूरों को बड़ी बड़ी आरियाँ और कुल्हाड़ी सहित हथियारों को अपने जंगल की और जाते देखा तो उनका खून खौल उठा वो सब समझ गए की इसमें जरुर कोई बड़ी साजिश की बू आ रही है।
उन्होंने सोचा की जब तक पुरुष आते हैं तब तक तो सारा जंगल नेस्तानाबुत हो चूका होगा। ऐसे में रैणी गांव की महिला मंगल दल की अध्यक्षा गौरा देवी ने वीरता और साहस का परिचय देते हुये गांव की सभी महिलाओं को एकत्रित किया और दारांती के साथ जंगल की और निकल पड़े।
सारी महिलायें पेड़ो को बचाने के लिए ठेकदारों और मजदूरों से भिड गई। उन्होंने किसी भी पेड़ को न काटने की चेतावनी दी। काफी देर तक महिलायें संघर्ष करती रही। इस दौरान ठेकेदार नें महिलाओं को डराया धमकाया। पर महिलाओं ने हार नहीं मानी। उन्होंने कहा ये जंगल हमारा मायका है, हम इसको कटने नहीं देंगे। चाहे इसके लिए हमें अपनी जान ही क्यों न देनी पड़े।
महिलाओं की बात का उन पर कोई असर नहीं हुआ। जिसके बाद सभी महिलायें पेड़ो पर अंग्वाल मारकर चिपक गई। और कहने लगी की इन पेड़ो को काटने से पहले हमें काटना पड़ेगा। काफी देर तक महिलाओं और ठेकेदार मजदूरो के बीच संघर्ष चलता रहा। आखिरकार महिलाओं की प्रतिबद्दता और तीखे विरोध को देखते हुये ठेकदार और मजदूरो को बेरंग लौटना पड़ा। और इस तरह से महिलाओं ने अपने जंगल को काटने से बचा लिया।
इसके बाद इस आन्दोलन का नाम चिपको आन्दोलन के नाम से मशहूर हो गया, और इस आन्दोलन की जनक बनी गौरा देवी, हालांकि सूत्रधार तो कोई और थे लेकिन इसके बाद इस आन्दोलन ने जो रूप लिया उसने लाखों पेड़ों को कटने से बचाया, शायद तब पर्यावरण के प्रति सरकार इतनी जागरूक नहीं थी, लेकिन उत्तराखंड की महिला शक्ति ने ये अहसास दिलाया कि पर्यावरण हमारे लिए हमारे जान से भी जादा कीमती है, इसलिए तो हमारी मात्रशक्ति की पहचान दुनिया में विख्यात है। ना जाने कितने पेड़ दुनिया में इसके बाद कटने से बच गए होंगे, और आज भी बचाये जाते हैं, हम हमेशा इस ताकत को नमन करते हैं। धन्यबाद। ')}