- 1962 के चीन युद्ध में पिता को चीन ने 9 माह बाद छोड़ा था।
- आज 58 साल बाद चीन की ही देन कोरोनो का डॉक्टर बेटा इलाज कर रहा है।
होली के अगले दिन, दून अस्पताल के प्रमुख डॉक्टर के.के.टम्टा की रीढ़ की हड्डी फेक्चर हो गई थी।न्यूरोसर्जन डॉक्टर तिवाड़ी ने जांच में पाया कि, D-12 का फेक्चर हो गया है। लिहाजा डॉक्टर टम्टा को चार हफ्ते का रेस्ट की सलाह हुई। वह आराम कर ही रहे थे कि, तब तक कोरोना जैसी वैश्विक महामारी का उत्तराखण्ड में अलार्म बज गया था। डॉक्टर टम्टा का अस्पताल जो कि देहरादून का सबसे बड़ा सरकारी अस्पताल है में कोरोना मरीज जांच के लिए आने लगे।
अस्पताल पूरे राज्य का केंद्र बिंदु बन गया। वह फोन पर मोनोटिरिंग कर रहे थे। लेकिन उनसे नहीं रह गया। वह हड्डी टूटने के छह दिन बाद अस्पताल, 19 तारीख को पहुँच गए। कमर में पट्टा लगा के, सहारे पर चलकर अपने ऑफिस के रूम से कोरोना को लेकर अपडेट रहते हैं। संक्रमित व्यक्ति की जांच की जा रही है। उन्हें थोड़ा आराम करना होता है तो, वहीं पर सोफे में बैठ जाते हैं। क्योंकि इस हॉस्पिटल में सारे नीति नियन्ता का प्रेशर रहता है। और इस वक्त तो इस बीमारी ने हालात खराब किये हुए हैं।
2012 में मैंने अपनी हिंदी मासिक पत्रिका में लिखा था कि, “डॉक्टर टम्टा दून अस्पताल के भगवान हैं” इस पर कुछ डॉक्टर मेरे से खफा हो गए थे। लेकिन मेरे सीनियर मित्र रिटायर्ड आईएएस अधिकारी श्री चन्द्र सिंह खुश थे। उन्होंने शाबाशी देते हुए कहा कि, गुसाईं जी बहुत अच्छा। उन्होंने कहा डॉक्टर टम्टा वास्तव में गरीब लोगों के जनरल ऑपरेशन अस्पताल में ही करते हैं। और फ्री में करते हैं। निजी क्लिनिक नहीं है।
मैंने भी तब आर्टिकिल लिखने से पहले दून अस्पताल जाकर इस पर शोध कार्य किया था। स्टॉफ से पूछा कि डॉक्टर टम्टा कहाँ हैं ? जबाब था ऑपरेशन रूम में। वहां बाहर लाइन लगी है। उनकी डेट दी रहती होगी। देहरादून क्या गढ़वाल समझिए जिन्हें निःशुल्क ऑपरेशन कराने हैं। वह यहां आते थे। डॉक्टर को आज की डेट में ईमानदार कहना या लिखना बड़ी चुनौती पूर्ण बात है। जब देहरादून में कुछ जगह 1300 रुपये की सिर्फ पर्ची हो गई है। और अन्य टेस्ट का चीर हरण अलग से।
डॉक्टर साहब 2011 में हेल्थ एजुकेशन में चन्द्रनगर, देहरादून में संयुक्त निदेशक थे। तो सचिव थे डॉ उमाकांत पंवार, डॉक्टर टम्टा ने उन से आग्रह किया कि, उनके हाथ में खुजली हो रही है। उन्हें अस्पताल में भेज कर निर्धन मरीजों के ऑपरेशन करने दिए जाये। भले वह इस पद पर रहे लेकिन छूट हो। उमाकांत ने उनकी बात सुन ली। उन्हें दून अस्पताल भेज दिया। क्योंकि वह खुद भी एम्स से निकले डॉक्टर थे। बाद में आईएएस बने। वह भी हमारे मित्र रहे हैं। एक दिन में 25 जनरल ऑपरेशन करने का उनका रिकॉर्ड रहा है। और सीएमएस की ड्यूटी भी।
झांसी मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस , एमएस करने बाद 1991 में पहली बार जौनपुर ब्लॉक कोली पन्तवाड़ी पीएससी में ज्वाइन किया। तब घोड़ाखोली से 5 किलोमीटर पैदल चढ़ना पड़ता था। फिर नरेंद्र नगर, वहां से टिहरी। वहां वह 11 साल रहे। वह ही एक मात्र सर्जन थे वहां। 1994 से 1996 तक जब में अस्पताल के समीप स्वामी राम तीर्थ परिसर गढ़वाल विश्व विद्यालय से बीएससी कर रहा था तब डॉक्टर टम्टा को देखता था। वह तब भी ऑपरेशन में बहुत बिजी रहते थे। तब वे 35 साल के होंगे। टिहरी का अस्पताल जो घण्टाघर के समीप था आज के किसी मैडिकल कालेज से कम नहीं था। जखोली तक के मरीज आते थे वहां। तब जखोली जिले का हिस्सा था। राष्ट्रीय प्रोग्राम के तहत ऑपरेशन होते थे। लक्ष्य दिया रहता था। फैमली प्रोग्राम का। उसे डॉक्टर टम्टा ने बखूबी निभाया।
वह पौड़ी गढ़वाल जिले मे सीएमओ रहे और टिहरी में भी। मेडिकल कॉलेज श्रीनगर के प्रिंसिपल भी रहे। उन्होंने एक लाख से ज्यादा जनरल ऑपरेशन को अंजाम दिया है। सबसे बड़ी बात यह है कि उन्होंने 2017 से गैर सरकारी निर्धन कोष बनाया है। उसमें पांच लोग डिसाइड करते हैं कि गरीब को उपकरण की मदद की जानी चाहिए या नहीं।
बदायूं का एक व्यक्ति 2017 में देहरादून रेल से आया। उसका स्टेशन में रेल से पैर कट गया। उसे दून अस्पताल लाया गया। डॉक्टर टम्टा ने अपने देखरेख में उसके जरूरी ऑपरेशन किये। एक पैर तो स्टेशन में कट गया था। लेकिन जो दूसरा पैर था उसकी हड्डियां टूट गई थी। रॉड, इत्यादि लगनी थीं। सामान सरकारी में देय नहीं है। लिहाजा डॉक्टर टम्टा ने डॉक्टर, फार्मेसिस्ट, अन्य स्टाफ की मीटिंग की। उन्होंने 5000 रुपया देकर एक निर्धन कोष बनाया, जिससे जिसके पास कुछ नहीं है उसके लिए उपकरण लाये जा सके।
डॉक्टर रामेश्वर पांडये ने 15 हज़ार दिये। किसी कर्मी ने 100 रुपये। इस प्रकार इस कोष में 4 लाख रुपये हैं। इसमें स्वयं टम्टा अध्य्क्ष। डॉक्टर केसी पंत सचिव, एक मेम्बर डिप्लोमा फार्मेश अफसर, एक अकाउंट से। एक डॉक्टर जो लिखेगा कि इस गरीब व्यक्ति को उपकरण दिए जाने चाहिए। बदायूं वाले व्यक्ति पर 20 हज़ार के उपकरण लगाये गए। इससे 30-35 लोगों को मदद की गई है। जिन लोगों ने इस कोष में पैसा दिया है उसका नाम पता मेंटेन हैं। इसका खाता बैंक में खुला है।
अभी ओएनजीसी की एकमहिला अधिकारी ने रिटायर्ड होने पर 50 हज़ार का चेक दिया। एक महिला ने अपने पति के श्राद्ध पर 5000 दिए थे। बागेश्वर के एक व्यक्ति को एम्बुलेंस से गांव भिजवाया गया। उत्तरकाशी के एक व्यक्ति को 20 हज़ार के उपकरण दिए गए। इसमें वास्तविक गरीब लोगों की मदद हो रही है।
1961 में पिथौरागढ़ से 11 किलोमीटर दूर जखतड़ गांव में पैदा हुए डॉक्टर के के टम्टा के घर में 1962 में तब गमगीन के हालात पैदा हो गए थे कि, जब पिथौरागढ़ सोल्जर बोर्ड ऑफिस में लिस्ट लग गई थी चीन से भारत की तरफ से युद्ध करने गए सिपाही श्री सीआर टम्टा नहीं रहे।टम्टा के भाई बहनों में पिता के न रहने की उदासी छा गई थी। हर तफर आंसू थे। लेकिन 9 माह बाद वह आंसू खुशी में बदल गए जब पिता सीआर टम्टा घर आ गए, चीन सैनिकों ने उन्हें बंधक बना दिया था। फिर छोड़ दिया। डॉक्टर टम्टा उनके भाई, बहनों का पिता के मिलने के बाद जीवन ही बदल गया। पिता ने बीआरओ में मजदूरी की तब अपने बेटे, बेटियों को पढ़ाया।
डॉक्टर टम्टा ने अपने स्कूल के लिए हर रोज 11 किलोमीटर पिथौरागढ़ पैदल दूरी तय की। और 11 किलोमीटर गांव आना। विकट परिस्थितियों में वह डॉक्टरी में निकल गए। भाई फॉरेन सर्वीसेज मे। बहने टीचर। भाई अब नहीं रहे। उनके बच्चें अमेरिका में एन आर आई हैं। डॉक्टर की पत्नी रानीपोखरी में सरकारी स्कूल में टीचर हैं।
जिस पिता को 1962 में चीन से लोहा लिया आज उसी चीन की देन बीमारी कोरोना को भगाने के लिए 38 साल बाद, उनका बेटा उत्तराखण्ड राज्य के सबसे बड़े केंद्र में यत्न कर रहा है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से। वह भी रीढ़ की हड्डी टूट के बाद भी। गरीबों के लिए तो वो फरिस्ते रहे हैं लेकिन इस बार कोरोना संक्रिमित लोगों के लिए बेहद मुश्किल परिस्थिति में वो काम पर लगे हैं, धन्य हैं आप डॉक्टर साहब।
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