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उत्तराखंड इतिहास

विश्व की एकमात्र विरांगना जिसने 15 साल से 20 साल के बीच जीते 7 युद्ध, पढ़िये वीरगाथा..

Last updated: June 5, 2020 3:29 pm
Debanand pant
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6 Min Read
teelu rauteli
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तिलू रौतेली उत्तराखंड के इतिहास की वो विरांगना जिसकी कहानी आज भी इतिहास के पन्नो पर जब हम पढ़ते हैं तो गर्व महसूस करते हैं। जैसे झाँसी की लक्ष्मी बाई मर्दानों की तरह लडी थी, वेसे ही उत्तराखंड की वीरा तीलू रौतेली ने मर्दों का जिम्मा अपनों कधों पर लिया था कंत्यूर शासक इसके नाम से भी कांपने लगते थे। यह विरांगना वीरगति को प्राप्त हुई थी अपने राज्य के लिऐ जो लडते लडते मर जाऐ वो हमेशा के लिऐ अमर हो जाता है। इस साहसिक ग्रामिण वीरागना की वीरगाथा कोन नही पढ़ना चाहेगा।

वीरांगना तीलू रौतेली का जन्म लगभग सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में गुराड गांव परगना चौंदकोट गढ़वाल में वीर पुरुष भूप सिंह गोर्ला रावत की पुत्री के रूप में हुआ। इनकी माता का नाम मैणावती था तीलू रौतेली बचपन से ही बहुत बहादुर और साहसी थीं, समय बीतता गया और जब तीलू 15 वर्ष की हुईं तो उनके पिता ने उनकी मंगनी इड़ा गांव पट्टी मोदाडस्यु के भुप्पा नेगी के साथ कर दी।

इन्ही दिनों गढ़वाल पर कंत्यूरों द्वारा हमले किये जा रहे थे, इन्ही हमलों में उनके पिता, दोनों भाई, और उनके मंगेतर भुप्पा नेगी कंत्यूरों से युद्ध करते हुये वीरगति को प्राप्त हुये। जिस बात से तिलू रौतेली को बहुत बडा झटका लगा उसके मन मे कंत्यूरों के प्रति द्वेष पेदा हो गया था। अब कुछ महिने बीतने के बाद रौतेली का यह जख्म भरने लगा तो ऐक दिन कांडा गांव मे कौथीग मेला हो रहा था।

तीलू ने अपनी माँ से कौथीग में जाने की जिद की तो उनकी माँ ने उन्हें कहा : “तीलू तुझे अपने पिता और भाईयों की बिलकुल याद नही आती, जा पहले अपने पिता और भाईयों की मौत का बदला ले दुश्मनो से फिर जाना कौथीग” बस यही बात उस वीरांगना ने अपने जहन में बिठा ली और फिर अपनी 2 सहेलियों बेल्लु और देवली के साथ मिलकर एक नयी सेना का निर्माण किया।

प्रतिशोध की आग ने तीलू को एक घायल शेरनी की तरह बहुत वीर और खतरनाक बना दिया। अपनी दोनों सहेलियों और अपनी घोड़ी बिंदुली के साथ अपनी पूरी सेना का मार्गदर्शन करते हुये तीलू रौतेली ने सबसे पहले खेरागढ़ ( कालागढ़ के पास ) को कंत्यूरों से आज़ाद कराया।

उसके बाद उमटागढ़ी में भी तीलू रौतेली ने कंत्यूरों को धूल चटाई। फिर सल्ट महादेव में और उसके बाद भिलणभौंण की ओर अपना रुख किया और वहां भी कंत्यूरों को हार का स्वाद चखाया। इसी युद्ध में उनकी दोनों सहेलियां बेल्लु और देवली भी वीरगति को प्राप्त हुईं। अपनी जीत और कंत्यूरों की हार के क्रम को यूं ही जारी रखते हुये तीलू रौतेली ने चौखुटिया तक गढ़ राज्य की सीमा स्थापित करने के बाद अपनी सेना के साथ देघाट वापस आने का निर्णय लिया।

उसके बाद कालिंकाखाल में फिर से कंत्यूरों को घुटने टेकने पर मज़बूर करने वाली वीरांगना तीलू रौतेली सराईखेत पहुंचीं और वहां एक बार फिर से कंत्यूरों का सफाया करके अपने पिता,भाईयों, और मंगेतर की मृत्यु का प्रतिशोध लिया।इसी युद्ध में दुश्मनों के वार से घायल होकर तीलू की घोड़ी बिंदुली ने भी प्राण त्याग दिये।

इस तरह कंत्यूरों को परास्त करके वापस लौटते हुये कांडा गांव के नीचे पूर्वी नयार नदी को देखकर तीलू रौतेली ने उस नदी के पास जाकर कुछ पल विश्राम करना चाहा और जैसे ही तीलू नदी के पास पहुंची वहां पहले से झाड़ियों के पीछे छुपे रामू रजवार नाम के हारी हुई कंत्यूरी सेना के एक सैनिक ने धोखे से तीलू पर पीछे से हमला करके मार दिया।

और इस तरह वीरांगना तीलू रौतेली इतिहास के पन्नो में हमेशा के लिये अमर हो गया। हमे ये जानकर बहुत गर्व है कि एक ऐसी वीरांगना जो 15 से 20 वर्ष की आयु में 7 युद्ध जीत चुकी थीं और संभवतः इतनी कम उम्र में ऐसा करने वाली दुनिया की एकमात्र वीरांगना है, वह तीलू रौतेली पूरे संसार में और इतिहास के पन्नो में गढ़वाल की रानी लक्ष्मी बाई के रूप में जानी जाती हैं।

तीलू रौतेली की याद और सम्मान में आज भी कांडा गांव और बीरोंखाल के लोग हर साल कौथीग और ढोल दमाऊ के साथ उनकी प्रतिमा का पूजन करते हैं। हे वीरांगना तीलू रौतेली हम नमन करते हैं तेरे साहस को,तेरी वीरता को,तेरे उन धन्य माता पिता को जिन्होंने ऐसी वीरांगना को जन्म दिया, और नमन करते हैं गढ़वाल की तेरी उस जन्मभूमि को जहाँ तीलू रौतेली जैसी बेटियां पैदा होती हैं।

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