बांज (ओक)-
मध्य हिमालयी क्षेत्र में बांज की विभिन्न प्रजातियां (बांज ,तिलौंज,रियांज व खरसू आदि) 1200 मी. से लेकर 3500 मी. की ऊंचाई के मध्य स्थानीय जलवायु, मिट्टी व ढाल की दिशा के अनुरुप पायी जाती हैं। इसकी लकड़ी का घनत्व 0. 75 ग्राम प्रति घन सेंटी मीटर होता है तो यह अति मजबूत और सख्त होती है इस पर फफूंदी और कीटों का असर नहीं होता है न इसके जोड़ उखड़ते, न ही लकड़ी फूलती और नमी से सड़ती है और न ही अपनी गंध छोड़ती.

बांज और उत्तराखंड-
बांज (ओक) को उत्तराखंड का हरा सोना कहा जाता है। उत्तराखंड के पर्यावरण,खेती- बाड़ी, समाज व संस्कृति से गहरा ताल्लुक रखने वाला बांज एक ऐसा अति उपयोगी जाना पहिचाना बृक्ष है जिसकी उपयोगिता अन्य बृक्षों से अधिक है.
हमारे उत्तखण्ड में एक पर्यावरणीय गीत भी प्रचलित है ” बाँजै की जैड़यों को ठंडो पाणी ” और यह तथ्य भी है की इसकी सूखी चौड़ी पत्तियों का आवरण जहां जमीन को धूप की गर्मी से बचाता है वहीं बरसात के पानी को तेजी से बहने से रोकता है तो पानी को जमीन के अंदर जाने का अधिक समय मिलने से बारामासी धारे पंदेरे ठन्डे पानी का सुलभ और मन लुभावन स्रोत थे.
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बांज के पेड़ के फायदे-
1. गंज्याली (ओखली कुटनी) बांज की ही लकड़ी के बनते हैं, गंज्याली पहाड़ी जीवन से जुड़ा ऐक एसा हथियार है जिसके बिना धान की कुटाई नहीं की जा सकती यह चक्की का काम करती है ।
2. इसकी हरी पत्तियां पशुओं के लिये पौष्टिक होती हैं। बांज की पत्तियों के लिऐ पहाड़ की नारियां दूर दूर जाकर इसे अपने पशुओं का चारा बनाती हैं घर के नजदीक का बांज बरसात ओर ठण्ड के दिनो में चारा के लिऐ प्रयोग किया जाता है।
3. इसके तने के गोले से हल का निसुड़ सब से अधिक पसंद किया जाता है। बांज के तने से बनाया गया नसुड़ बहुत मजबूत होता है इसलिऐ पहाड़ो मे इसका प्रयोग बहुत जादा मात्रा मे होता है।
4. इसकी सूखी पत्तियां पशुओं के बिछावन लिये उपयोग की जाती हैं, पशुओं के मल मूत्र में सन जाने से बाद में इससे अच्छी खाद बन जाती है.
5. ईंधन के रुप में बांज की लकडी़ सर्वोतम होती है, अन्य लकडी़ की तुलना में इससे ज्यादा ताप और ऊर्जा मिलती है इसकी बारीक कैडिंया जल्दी जलती हैं ओर बड़ी लकड़ी आराम से जलती है। इस बांज के तने से बना कोयला दांत मंजन के काम मे भी लाया जाता है यही नहीं इस कोयले पर सैकी हुई रोटी टेस्टी होती है।
6. बांज की लकड़ी के राख में दबे कोयले जो सुबहः चूल्हा जलने क लिय अंगार देते हैं जो पहाड़ी जीवन मे आग जलाने जैसे कष्ट से बचाती हैं
7. ग्रामीण काश्तकारों द्वारा बांज की लकडी़ का उपयोग खेती के काम में आने वाले विविध औजारों यथा कुदाल,दरातीं के सुंयाठ, जुवा, जोल-पाटा के निर्माण में किया जाता है।
8. पर्यावरण को समृद्ध रखने में बांज के जंगलों की महत्वपूर्ण भूमिका है। बांज की जड़े वर्षा जल को अवशोषित करने व भूमिगत करने में मदद करती हैं जिससे जलस्रोतो में सतत प्रवाह बना रहता है बांज की लम्बी व विस्तृत क्षेत्र में फैली जडे़ मिट्टी को जकडे़ रखती हैं जिससे भू कटाव नहीं हो पाता.
9. बांज की पत्तियां जमीन में गिरकर दबती सड़ती रहती हैं,इससे मिट्टी की सबसे उपरी परत में हृयूमस (प्राकृतिक खाद) का निर्माण होता रहता है।
10. बांज का बृक्ष बड़ा ही छांवदार होता है इसकी छांव मे बैठने पर ठंडक महसूस होती है। बांज की जड़ी का पानी शुद्ध होता है। क्योंकि यह लंम्बी दूरी तक फैली हुई रहती हैं बांज के बृक्ष पर होने वाले लिक्वाल औषधीय गुणो से भरपूर होता है । इस पेड़ के बहुत सारे फायदे हैं जो देश ओर दुनिया के पर्पेक्ष मे हैं
ईंधन व चारे के लिये बांज का अधांधुंध व गलत तरीके से उपयोग करना बांज के लिये सबसे ज्यादा घातक सिद्ध हुआ है। होता यह है कि बांज की पत्तियों व उसकी शाखा को बार -बार काटते रहने के कारण पेड़ पत्तियों से विहीन हो जाता है। इससे पेड़ की विकास क्रिया रुक जाती है और अन्ततः वह ठूंठ बनकर खत्म हो जाता है।
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कैसे पैदा करें बांज का पौधा-
चुनी गयी प्रजातियों के पक्के बीज लिक्वाल ,acorns जमा करके बोने से पौध तैयार होता है। उगने का सफलता रेट 60-62% होता है। इसलिए एक हजार पौध के लिए 1600 बीज बोने होते हैं। जमीन में नमी बनी रहे लेकिन पानी जमा न हो , इसका ध्यान रखना होता है। 8-10 इंच लम्बे पौधे को खेत/ भूमि में, पौधे में 15 फ़ीट की दूरी पर लगाने से एक सुन्दर बांज बन तैयार हो सकता है। चूनिक यह सख्त लकड़ी वाला पेड़ है तो पौधा धीरे धीरे बढ़ता है और उपयोग में लाने के लिए कम से काम 25 साल तो लगते ही हैं। इस बीच इस भूमि में अन्य फसलें उगाई जा सकती हैं और भूमि का पूरा लाभ लिया जा सकता है।
उत्तराखंड में पलायन के कारण गाँवों में बहुत सी कृषि भूमि बिना उपयोग के पडी हुए है , कई स्थानों में ऊंचाई वाले पर्वत बृक्ष विहीन हैं , ऐसी उपलब्ध भूमि में बांज के जंगल लगाये जा सकते है।
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