उत्तराखंड में भारतीय साहित्य की एक ऐसी प्रेमकथा है जिसमे स्त्री द्वारा पुरुष का हरण किया गया था, यह कहानी है दैत्यराज वाणासुर की पुत्री उषा और श्रीकृष्ण के पोते अनिरुद्ध की।
दैत्यराज बाणासुर भगवान शिव की भक्ति में सदा मगन रहता था। समाज में उसका बड़ा आदर था। उसकी उदारता और बुद्धिमत्ता प्रशंसनीय थी। उसकी प्रतिज्ञा अटल होती थी और सचमुच वह बात का धनी था। उन दिनों वह परम रमणीय शोणितपुर में राज्य करता था
वाणासुर की उषा नाम की एक कन्या थी जो अपनी सखी चित्रलेखा के साथ उखीमठ में रहती थी,
उखीमठ एक प्रसिद्द शैवमठ जो वीरशैव मत का वैराग्यपीठ है, वीरशैवों के पांच शिवाचार्यों में एक शिवाचार्य यही विराजमान होते हैं। यहाँ छह महीने केदारनाथ भगवान की गद्दीस्थल भी है और पञ्च केदारों को एक साथ इस मंदिर में पूजा जाता है, भगवान शिव ने यहाँ ओमकार रूप में मान्धाता को दर्शन दिए थे। यह स्थान उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जनपद में है। उषा को स्वयं माता पार्वती उखीमठ के निकट गुप्तकाशी में शिक्षा देती थी।
एक बार उषा ने स्वप्न में श्री कृष्ण के पौत्र तथा प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध को देखा और उस पर मोहित हो गई। उसने अपने स्वप्न की बात अपनी सखी चित्रलेखा को बताया। चित्रलेखा ने अपने योगबल से अनिरुद्ध का चित्र बनाया और उषा को दिखाया और पूछा, “क्या तुमने इसी को स्वप्न में देखा था?” इस पर उषा बोली, “हाँ, यही मेरा चितचोर है। अब मैं इनके बिना नहीं रह सकती।”
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