उत्तराखंड के ढलानदार जमीन में चाय की खेती की संभावनाएं……………………………..
राज्य के वरिष्ठ पत्रकार शीशपाल गुसाईं उत्तराखंड में चाय की खेती की संभावनाओं पर विस्तृत नज़र डाल रहे हैं। आप पढ़िए-
अभी साल भर पहले राजभवन देहारादून में बसंत ऋतु की पुष्प प्रदर्शनी हुई थी। उसमें उत्तराखंड के सरकारी विभागों के स्टॉल भी लगे थे। उसमें एक स्टॉल चायपत्ती का था। तो वह लोग चाय बोर्ड अल्मोड़ा से थे। उन्होंने कहा बड़ी मुश्किल से, यह चाय लाये हैं यह चाय लंदन जाती है 30 हज़ार रुपये किलो। जो कौसानी की चाय है। इसकी कमी रहती है। राजभवन का प्रेशर रहा होगा। या आना अनिवार्य होगा। इसलिये वह उस चाय को दिखाने लाये। वह बिकी नहीं। न उन्होंने बेचने के लिए लाई थीं क्योंकि वह लंदन का हिस्सा रहा होगा। कम मात्रा में पैदावार है इसकी। तो उत्तराखंड से चाय का निर्यात 30 हज़ार रुपये किलो हो रहा है। जरा तबियत से सोचिए, कि क्या हम चाय में आत्मनिर्भरता नहीं ला सकते हैं।
लन्दन में फेमस उत्तराखंड की चाय-
एक बार, लंदन ने इंडिया के कंटेनर वापस भेज दिए थे। क्योंकि उन सामग्री में क्वाल्टी का सामान नहीं था। उन्होंने इसे जलाने के लिए बोला। वह जला दिए गए। क्योंकि कमी निर्यातकों की थीं। उत्तराखंड चाय बोर्ड को लंदन, यूरोप, अमेरिका का ख्याल रहता है। उन्हें उतनी चाय चाहिए। उतनी पैदावार यह लोग चाय बोर्ड की इज्ज़त बचाने के लिये करते हैं। अधिक मात्रा में नहीं।उनका रकबा नहीं होगा, आखिर चाय भी जमीन में उगती है। आसमान में नहीं। हालांकि लंदन, यूरोप, अमेरिका इस तरह की चाय पर दार्जीलिंग असम के भरोसे है। लेकिन उत्तराखंड चाय की लंदन में इंट्री है। यह जानकर मुझे खुशी हुई कि हमारे खेतो की लंदन, यूरोप इज्ज़त तो है। जो चाय सामान्य रूप से बिकती है वह और इन तीन को छोड़कर पूरे संसार में बिकती है।
1835 में पहली बार उत्तराखंड पहुंचे थे चाय के पौधे-
1835 में जब अंग्रेजों ने कोलकाता से चाय के 2000 पौधों की खेप उत्तराखंड भेजी तो उन्हें भी यकीन नहीं रहा होगा कि धीरे धीरे बड़े क्षेत्र में विस्तार ले लेगी। सन 1838 में पहली दरमियान जब यहां उत्पादित चाय कोलकाता भेजी गई तो कोलकाता चैंबर्स आफ कॉमर्स ने इसे हर मानकों पर खरा पाया। धीरे-धीरे देहरादून, कौसानी, मल्ला कत्यूर समेत अनेक स्थानों पर चाय की खेती होने लगी। आजादी से पहले तक यहां चाय की खेती का रकबा करीब 11 हजार हेक्टेयर तक पहुंच गया।
आजादी के बाद वर्ष 1960 के दशक तक उत्पादन में जरूर कमी आई, लेकिन यहां की चाय देश-विदेश में महक बिखेरती रही। वक्त ने करवट बदली और तमाम कारणों से चाय की खेती सिमटने के साथ ही सिमटते चले गए चाय बागान और उत्पादन भी नाममात्र को रह गया। अविभाजित उत्तर प्रदेश में 1990 के दशक में थोड़े प्रयास हुए तो रसातल में पहुंची चाय की खेती थोड़ी आगे बढ़ी। आज भी चाय राज्य में पैदा वार कर रहा है। लेकिन सीमित जगह में।
महज 1141 हेक्टेयर में चाय की खेती-
चाय की 9 हजार हेक्टेयर और खेती महज 1141 हेक्टेयर में। गुजरे 20 सालों में शेष 7859 हेक्टेयर भूमि को भी चाय बागानों के रूप में विकसित करने की दिशा में पहल होती तो आज सात लाख किलो से अधिक चाय का उत्पादन मिलता। राज्य में 2002-03 में चाय विकास बोर्ड का गठन होने पर प्रयास हुए, लेकिन अभी तक आठ जिलों अल्मोड़ा, बागेश्वर, नैनीताल, चंपावत, पिथौरागढ़, चमोली, रुद्रप्रयाग और पौड़ी में करीब 11 सौ हेक्टेयर क्षेत्र में ही सरकारी स्तर पर चाय की खेती हो रही है। जिसमें उत्पादन करीब 80 हजार किलोग्राम मिल रहा है। इसे और बढ़ाया जा सकता है क्योंकि राज्य में 80% ढलान दार जमीन है। जहाँ चाय की खेती बड़ी मात्रा में होकर एक सशक्त आर्थिकी का हथियार बन सकती है।
चाय की खेती से जुडी उत्तराखंड की यादें-
गढ़वाल के पहले सांसद व महान नेता श्री भक्त दर्शन जी भी अपने यहां मुसेटी में उन्होंने स्वयं चाय बागान लगाए थे। यूपी से उधान के विशेषज्ञ मुसेटी आये थे। बहुत चाय का निर्यात हुआ था तब, काफी गांव उसी चाय के भरोसे रहे। फिर भक्त दर्शन नहीं रहे, न उनके लगाये चाय के बागान।
देहरादून में बंजारा वाला का नाम टी स्टेट था। पुराने लोग आज भी बताते हैं टी स्टेट की अंग्रेजों को चाय उगते हमने देखी है।सीढ़ीदार खेत होते थे। क्योंकि चाय को ढलान जमीन में पैदावार में पसन्द है। क्योंकि वर्षात का पानी इसकी जड़ों में जमा न हो जाय। यह ठंडे इलाकों में होती है। देहरादून भी पहले ठंडा था। समय के अनुसार टी स्टेट, कंक्रीट का जंगल हो गया। प्रेमनगर में भी चाय का बागान था। हालांकि वह हज़ारों एकड़ जमीन खाली है लेकिन उसमें चाय नहीं होती है।
उत्तराखंड में चाय खेती की संभावनाएं–
पहाड़ में काफी ढ़लान दार खेत है, वहां चाय की खेती हो सकती है। जब कौसानी की चाय 30 हज़ार रुपये किलो लंदन में बिक सकती है। फिर प्रतापनगर, खिर्सू, लैन्सडाउन के खेतों में चाय उगा कर क्यों नहीं बेची जा सकती है? क्या इसके लिये भगीरथ प्रसास हुये हैं। इसके जबाब की कई प्रगतिशील किसान इतंज़ारी में है। आज़ादी के बाद 1960 से उत्तराखण्ड में चाय की पैदावार हो रही है। कई दशकों तक इसे आगे बढ़ाने का काम क्यों नहीं हुआ। तिवाड़ी जी ने बोर्ड बना दिया था, अल्मोड़ा हेड क्वार्टर रखा गया। इसकी खेती को आगे बढ़ाया जाना था, क्यों नहीं हुआ इसका जबाब आना बाकी है।
यह भी हो सकता था कि, चाय बोर्ड हर ब्लॉक में इसका प्रयोग करता आज 20 साल हो जाते प्रयोग करते करते। कहीं तो सीढ़ीदार खेतों में सफलता मिलती। 95 ब्लॉक में एक तिहाई में तो सफलता मिलती। आखिर प्रयोग भी एक चीज हैं। उसकी इज्जत होनी चाहिए।
चाय कई प्रकार की होती है। दार्जलिंग की चाय जो 500 रुपये की आधा किलो की है। उसकी पत्ती सीधे खेतों से आती है।उसको पानी उबालने पर ढक्कन मारने से पहले चाय डालते हैं। इसका स्वाद बढ़िया होता है। नहीं पानी मे उबालेंगे तो कड़वा होती है।
जो चाय हम आप सुबह, शाम, दिन भर पीते हैं उसमें केमिकल्स डाला जाता है। ताकि यह कड़क का एहसास दे। कोई भी फेमस चाय कम्पनी टाटा हो, या बुरकबॉण्ड सब यह काम करते हैं। कि चाय का फ्लेवर आ जाये। ग्राहक खुश रहें। हम भी जब से पैदा हुए तब से यही चाय पी रहे हैं। क्योंकि बहुत पब्लिक है जो चाय पर निर्भर है। यदि सही चाय जो केमिकल युक्त न हो, इतनी मेहनत, रकबा नहीं है हमारे पास। न विचार, न प्रयोग। लेकिन देश बात छोड़िए, उसकी जनसंख्या की बात छोड़िये।अपने उत्तराखंड में इसकी संभावनाये हैं।
अंग्रेज़ो ने इस जगह को फिट पाया था। वह प्रतापनगर, खिर्सू, में इसलिए चाय को ईज़ाद नहीं कर सके, होंगे कि वहां ट्रेन की पटरियां नहीं थीं। पर आज तो बहुत कुछ है। प्रयोग किया जा सकता है। जमीन पर। केमिकल्स से लपोड़ी गई (रंगी गई) चाय से, विज्ञान ने कई बीमारियां पाई है। अध्ययन में साफ है कि इसमें कैंसर के लक्षण पाये जाते हैं। लेकिन हमें आदत इस तरह की पड़ गई है कि हमारी आंख भी खुलते दुनिया को देखती है तो उसे चाय चाहिये। किसी का आदर सत्कार, या टेंशन भगाने के लिए यह चाय होती है हमने इस तरह की धारणा बना दी है। लेकिन हमारे पास चाय के पर्याप्त स्थान हैं बस उन ढलान दार खेतों में, विज्ञान, विशेषज्ञ, उधान के प्रगतिशील किसान लोगों के विचारों की। जिसमें उन्होंने उतराखण्ड को चाय के लिए उपयुक्त स्थान पाया था। सवाल इच्छा शक्ति का है। जो पहाड़ चढ़नी बाकी है।