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उत्तराखंड पर्यटन

देवताओं की पसंदीदा जगह है कुण्ड सौड़, ऐतिहासिक है ये देव स्थली, खूबसूरत भी

Last updated: June 5, 2020 3:38 pm
Debanand pant
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7 Min Read
कुण्ड सौड़
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उत्तराखंड को देवभूमि ऐसे ही नहीं कहा जाता है। यहां कण-कण में देवताओं का निवास माना जाता है। आज हम आपको उत्तराखंड की एक ऐसी जगह के बारे में बताने जा रहे हैं। जो बेहद खूबसूरत होने के साथ, ऐतिहासिक स्थली है। यह स्थान कुण्ड सौड़ के नाम से विख्यात है, और उत्तराखण्ड के जिला रुद्रप्रयाग, जखोली ब्लॉक में लस्या पट्टी में लगभग 8 हजार फ़ीट की ऊंचाई पर विद्यमान है।

यहां की भब्य विशेषता यह है कि इतने ऊँचाई पर होने के बावजूद यहाँ दूर दूर तक फैला हल्का ढलुवा विस्त्रित समतल क्षेत्र है, जो कि बहुत ही दर्शनीय अवलोकित होता है।

कुण्ड सौड़ में नर्सिंग देवता का मंदिर-

कुण्ड सौड़ में एक बहुत ही प्राचीन नर्सिंग देवता का मंदिर है। मान्यता है कि नरसिंह के श्रापवश यहाँ की जमीन 12 वर्षों तक उर्वरकीय (उपजाऊ) रहती है किन्तु 12 वर्षों के पश्चात बंजर हो जाती है, तब इस पर आलू या दालें आदि का एक दाना भी उत्पन्न नही होता। जनश्रुतिनुसार इस जमीन पर नरसिंह देवता के श्रापवश हल नही जोता जाता था इसलिए कुदाल फावड़ा गैंती से ही यहाँ की जमीन खुदाई की जाती थी जो बड़ा ही कष्टकारक होता था।

इसके निवारण के लिए उरोली गाँव के लोगो ने नर्सिंग देवता को प्रसन्न करने हेतु एक भव्य हवन यज्ञ किया गया। जो बहुत दिनो तक चलता रहा। अन्त मे नरसिंह देवता प्रसन्न हुए और उन्होंने अपने पश्वा द्वारा यह उदघोषणा की हल जोतने से मुझे कोई कष्ट नही परन्तु मेरे स्थान के आसपास और पूर्वी दिशा में कोई घर अथवा छानी (झोपड़ी ) बनाने का प्रयास न करे।परन्तु कुछ पर्याप्त समयोपरांत उरोली गाँव के कुँवर सिंह राणा ने नरसिंह देवता के मन्दिर का निर्माण किया।

परन्तु भूलवश उन्होंने मन्दिर के तनिक पास दाहिनी दिशा तरफ एक छानी स्वरूप झोपड़ी का भी निर्माण कर दिया। फलस्वरूप कुछ समय पश्चात उनकी देहरादून मे एक दुर्घटना में मृत्यु हो गयी। कुछ समय बाद अनायास ही उनकी पत्नी का देहांत हो गया। जो दो चार झोपडियाँ वहाँ पर थी वे आज सभी खण्डहर हो चुकी है। कदाचित् यही कारण है कि उरोली गाँव के राणा लोगो के सम्मुख नरसिंह का बाजा लगने पर कही भी कभी भी नाचता नही है।

कुण्ड सौड़ का नामकरण-

इस जगह का नाम कुण्ड सौड यहाँ पर पानी का स्वयंभू कुण्ड मौजूद होने के कारण पड़ा। इतनी अधिक ऊँचाई पर स्वयंभू कुण्ड होना भी आश्चर्य की बात है। परन्तु ग्राम्य लोगो द्वारा नयी झील को बहुत बडा और धरातल कंक्रीट का बना दिया ताकि बरसात मे पानी भरने पर सम्पूर्ण वर्ष इस पर पानी भरा रहे।

खूबसूरत और रमणीक है कुण्ड सौड़-

बहुत ऊँचाई पर होने के कारण दूर दूर तक फैले इस स्थान पर शीत ऋतु मे 3-4 फीट बर्फ से भरी चादर सी फैली रहती है। परन्तु ग्रीष्म ऋतु मे यहाँ का मौसम बहुत ही रमणीक रहता है। कुण्ड सौड की ऊंची समतल धार टीला मे एक भी वृक्ष नही वरन भिन्न भिन्न प्रकार के पुष्प और छोटी हरी घास उगी होने के कारण यहाँ की छटा बड़ी मनोहारी रहती है यहाँ से दूर दूर के क्षेत्र जैसे माता मठियाणा का मन्दिर, बांगर पट्टी, पाल्या बांगर, भरदार, नागपुर पट्टी, पौड़ी, श्रीनगर, दृष्टिगोचर होते है, हिमालय का चौखम्बा, केदार काण्ठा, हाथी पर्वत, नन्दादेवी आदि चोटियाँ यहाँ से सुदूर दृष्टिगोचर होते है। यहाँ से कुछ ही मीटर नीचे सम्पूर्ण जंगल बांज, बुरांस, अंयार, काफल आदि के वृक्षों से प्रचुर मात्रा मे है जो बहुत अधिक घनी अवस्था मे है।

माधो सिंह भंडारी से भी जुड़ा है इतिहास-

यहाँ की एक और विशेषता यह है कि इस जंगल के हिळो क्षेत्र से एक गाड (छोटी नदी) निकलती है जिस गाड के पानी को गढ़वाल के सुप्रसिद्ध बीर भड (शूरवीर) माधो सिंह भण्डारी ने अपनी किशोर अवस्था मे लगभग 8 किमी0 की नहर का निर्माण कर अपने पैतृक गाँव लालुडी गढ़ ले कर गए थे। जो लगभग 350 वर्षो के पश्चात भी जीर्ण-शीर्ण अवस्था मे आज भी विद्यमान है। यह गूल गढ़वाल के इतिहास मे हिळो की गूल नाम से विख्यात है।

ज्ञातव्य हो कि बीर भड माधो सिंह भण्डारी ने अपने जीवन की दूसरी विश्व विख्यात गूल का भी निर्माण किया। जो मलेथा की गूल नाम से विख्यात है। मलेथा की जागीर गढ़वाल के राजा महिपत शाह के द्वारा माधो सिंह भण्डारी को उनकी वीरता हेतु पुरस्कार स्वरूप 17 वीं के प्रथमार्ध मे प्राप्त हुई थी। गढ़वाल के राजा महिपत शाह के सेनापति रहते उन्होंने कई युद्ध जीते। सन् 1650 मे भोटांत में तिब्बतियों से लड़ते-लडते उन्हे वीरगति प्राप्त हुई।

नगेला देवता हैं यहां का रक्षक-

बहरहाल कुण्ड सौड के कुछ नीचे इसी क्षेत्र मे नागेंद्र का एक विख्यात मन्दिर है जिसे स्थानीय भाषा मे नगेला भी कहा जाता है। यहाँ कि विशेषता यह है कि इस स्थान पर पानि का नौळा (गहरा कुण्ड) है यह लगभग 9 सीढियों जितना गहरा है। आम लोग जो नरसिंह देवता के दर्शन करने जाते है वे नगेला का दर्शन कर नौळे मे स्नान करके ही आगे नरसिंह के दर्शन करने पहुंचते है।

इस कुण्ड मे पुरूषों और कुंवारी कन्याओं को ही पानी भरने की परम्परा है मांस मदिरा वाले जूठे बर्तन अथवा सूतक वस्त्र धोने की कोशिश मात्र से नगेला देवता के कुएँ से सांप निकलकर प्रकट हो जाता है। नगेला इस क्षेत्र का रक्षक है यह तथ्य इस बात से भी स्पष्ट हो जाता है कि कभी कभी पशु गाय-बच्छी, बैल, बकरियाँ यहाँ चरते चरते दूर निकल जाते है और दूसरे तीसरे दिन अपने आप ही घर पहुंच जाते है। जब कि बाघ और भालू यहां दिन में भी घूमते दिखाई देते है।
लेख साभार(दौलत राणा) ')}

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