
पूरे देश में लॉक डाउन चल रहा है। उत्तराखंड के लोग भी अपने गाँव और घरों में लॉकडाउन का बखूबी ईमानदारी से पालन कर रहे हैं। कई युवा शहरों से गाँव लौटे हैं। इनके लौटने से गाँव में रौनक भी लौट आई है लेकिन जो युवा लौटे हैं उनके मन में कई सवाल घर कर रहे हैं। भविष्य को लेकर चिंता बढ़ गई है, कुछ लोग तो अपनी नौकरी पर लौट जाएंगे लेकिन कुछ अब नौकरी से मोह भंग कर गाँव में ही खेती करना चाहते हैं। इसलिए जरुरी है कि हमारे युवा उत्तराखंड में खेती की संभावना को समझें, वे शहर और गाँव में मिलने वाले केमिकल युक्त फलों और सब्जियों से उत्तराखंड को निजात दिला सकते हैं, रास्ता है ऑर्गनिक खेती, विस्तार में समझा रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार शीशपाल गुसाईं-
आलू की खेती (इतिहास से समझिए) –
उत्तराखंड राज्य में आलू हर गांव, हर नगर में पैदा होता है। इसे खाने से व्यक्ति वर्षों वर्षो तक बीमार नहीं होता है। यह ज्यादातर जगहों में कीटनाशक चीजों से बचा हुआ है। यानी जो जहां दवा नहीं वह चीज बढ़िया होती है स्वास्थ्य के लिए ऐसा डॉक्टर बताते हैं। करीब 18 वीं शताब्दी में विश्व में फ्रांस में आलू उगाया जाता था। सूअरों का यह प्रिय भोजन था। तब तक इसे मनुष्य नहीं खाते थे। करीब 100 सालों तक जब खाते खाते सूअरो को कुछ नहीं हुआ तो, फ्रांस का विज्ञान जागा। उन्होंने शोध कर सूअरो पर कोई बीमारी नहीं पाई। जांच में सारे विटामिन्स की उपलब्धता आलू में पाई गईं।
फिर जो आलू जानवरों के लिए उगाया जाता था, फ्रांस में मनुष्य का भोजन बना। विज्ञान के शोध के आधार पर इसका बीज यह अमेरिका, यूरोप, संसार सहित भारत में भी पहुँचा। भारत का यह प्रिय भोजन है। आलू हर जगह फिट होता है। इसकी हर डिश बनती है। आलू 12 माह की फसल है। इस पर करोड़ों लोगों की जिंदगी चल रही है। उत्तराखंड में इसकी अपार खेती की संभावनाएं हैं, इसमें कोई शक ही नहीं, कई गाँवों ने इसे अपना भी लिया है आजीविका से जोड़कर।
सेब की खेती-
सेब के कई बग़ीचे उत्तराखंड में हैं लेकिन यहाँ जो सेब खाते हैं वह यहीं का गया हुआ, कीटनाशक से सुसज्जित लौटकर बिकता है खाया जाता है। सेब जितना लाल होता है कहीं से तिल भर भी क्रैक नहीं रहता। समझो इसमें कीटनाशक लगा है। यह 180,200 रुपये किलो तक बिकता है। यह साल डेढ़ साल तक सड़ता नहीं है। सेब में सबसे ज्यादा कीटनाशक दवाओं का इस्तेमाल करने वाला राज्य हिमाचल प्रदेश है। इसी लिए हिमाचल सेब का बड़ा निर्यातक है। इसकी देखा देखी उत्तराखण्ड के किसानों ने भी की है। वह देख रहे हैं जब देहरादून में राजनीति, अफ़सरशाही इतनी मिलावट है तब थोड़ा हम क्यों न करें।
खैर, पांच छह साल तक हर्षिल का सेब इस मिलावट से अछूता था। हर्षिल में सेब और राजमा पर लंबे समय तक प्रवास पर रहने वाले समाजिक विशेषज्ञ श्री राजेन्द्र काला कहते हैं कि, कि कुछ लोगों ने देश प्रदेश हर्षिल के सेब के नाम पर अपनी दुकानें चमकाई है। महंगे रेट में सेब राजमा बेची है। जबकि उस पर फर्जी हर्षिल का स्टीकर लगा रहता है। उन्होंने बताया कि, हर्षिल का किसान अभी भी कीटनाशक से बचा हुआ है। वहाँ के असली किसान को मार्केटिंग नहीं करनी पड़ती।
व्यापारी, उधोगपति सीधे उनके बाग़ों से सेब ले जा रहे हैं। लेकिन उसमें 70% सेब अमेरिका , यूरोप में निर्यात होता है। सेब विज्ञानियो का कहना है लाल लाल सेब से खरीदने से बचना चाहिए। पीले और हरे सेब जो एक टोकरी में रखें रहते हैं वह सस्ते भी होते हैं 30 रुपये किलो, उसे लेना चाहिए। क्योंकि उसमें कीटनाशक नहीं डाला रहता है। जो शरीर के लिए फिट रहते हैं। कीट नाशक लगी चीजों से कैंसर होता है। सभी लाल सेबों में नहीं है। कुछ लोग जो पेड़ लगा कर, अपने खाने के लिए कर रहे हैं। वह सबसे बढ़िया है। जो कोल्ड स्टोरेज से साल दो साल बाद बाहर निकल रहा है। पता नहीं कब किस्मत खराब हो। लेकिन ख्याल और खरीदने में समझ हो।
टमाटर की खेती-
उत्तराखंड में जो टमाटर की खेती करते हैं उनका तो बहुत बढ़िया है। लेकिन जो शहरों और कस्बो में ठेली या दुकान में टोकरी में एक जैसे गोल मटोल , टाइट टमाटर हैं वह खाने में घातक हो सकते हैं। इनमें ज्यादातर में कैमिकल डाला रहता है। तभी तो टाइट और एक जैसे रहते हैं। वैज्ञानिकों ने टमाटर पर शोध कर बताया है कि, जो मजदूर टमाटरों में कैमिकल डालने का काम करते हैं, उस महिला का गर्भपात जल्दी हो जाता है। पुरुष या महिला मजदूर की स्मरण शक्ति कम हो जाती है। जिसे 60 साल में मरना हो उसकी 40 साल में मौत हो जाती है।
फेफड़े खराब हो जाते हैं। सांस लेने में दिक्कत होती है। जाहिर है वह पेस्टिसाइड के संपर्क में आ जाते होंगे। इन टमाटरों को खाने से सबसे ज्यादा कैंसर होता है। ऐसा टमाटर पर केमिकल्स डालने के बाद अध्ययन विज्ञानियो की रिपोर्ट है। सड़कों के किनारे पूरी ठेली टमाटरों से लाल है। सब एक साइज के हैं। राज्य के एक ही शहर देहरादून में 2000 हजार डॉक्टर रहते होंगे। यह भी हमारी तरह इसी टमाटर को खाते हैं। लेकिन जानकरों का कहना है टमाटर की खेती तो हर जगह हर घर में हो सकती है। या तो खेती हो। या इनमें केमिकल्स डालने से रोक लगे।
अंगूर-
अंगूर में भी कीटनाशक होने पर चिंता जताई गई है। जैसे घर में बुजुर्ग लोगों के लिए यह अंगूर ले जाना घातक होता है। कई बार गांव से कस्बे में गया व्यक्तिको परिचित का फोन आता है कि बुढड़ी दादी, या मा पिता, दादा बीमार हो रखें हैं एक किलो अंगूर ले आना यह प्रक्रिया खराब है। अंगूर या तो अपने सगवाड़े के खाओ या नजीबाबाद से गांव पहुँच रहे इस जहर से बचें।
नोट सभी चीजे अपने मन से नहीं लिखी गई हैं। यह विज्ञानियो के शोध पत्र के आधार का नतीजा है। लेखक भी यही चीजें खाता है जो आप खाते हैं। सवाल यह है किया जाय ? दुनिया ने इसका तोड़ आर्गेनिक खेती के रूप में निकाला है। गांव में या खाली जमीन में पारम्परिक खाद जैसे गोबर से आर्गेनिक खेती हो। तब यह चीजें उगाई जाय। और भोजन के रूप में खाई जाय।
कोरोना की वजह से बहुत सारे लोगों ने जिन्होंने पहाड़ छोड़ दिया था, उन्हें अपने खेतों, घरों में बिताये जिंदगी के ओ पल याद आ रहे हैं। कुछ लोगों ने कोरोना शहरी भय के कारण, गांव, घर आबाद करने का मन भी बनाया है। जो अच्छी बात है। पहाड़ को पूरी तरह तो नहीं, आंशिक रूप से आबाद होने का सुनहरा मौका है। जिस पर विचार होना चाहिए।
उत्तराखंड के काम धंधों, सरकारी जॉब्स करने वाले लोगों को हिमाचल के इस विंदु पर सीख लेनी चाहिए कि, वह लोग शनिवार और रविवार की छुट्टियों में शिमला या अन्य प्रमुख बाज़ारो, या जिला मुख्यालयो से अपने गांव जाते हैं। वहाँ बागवानी का काम देखते हैं।और हम लोग उल्टे गांव ,नगरों , पहाड़ी जिला मुख्यालयों से छुट्टियों में देहरादून या हल्द्वानी या अन्य प्रमुख कस्बों में आते हैं। अब समय आ गया है कि, खेतों, या आस पास की जमीन को आबाद किया जाय।