उत्तराखंड के विश्वविख्यात कृषि विश्वविद्यालय की डंक रहित मधुमक्खी को पलने और उनसे शहद बनाने की नयी तकनिकी विकसित की है। इस से मधुमक्खी पालने वाले किसानों के मन में खुसी की लहर दौड़ पड़ी है गोविंद बल्लभपंत कृषि विश्वविद्यालय की खोज और तकनीकि यदि सफल हुई तो पुरे भारत में शहद की नयी क्रांति पैदा हो जायेगी। शहद पालन में लागत कम और मुनाफा ज्यादा होता है, लेकिन मुधमक्खियों से शहर निकालना मुश्किल काम होता है, किसान और पशुपालकों हमेशा से इनके डंकों से डर रहा है।
लेकिन अब कृषि वैज्ञानिकों ने मधुमक्खियों की ऐसी प्रजाति विकसित की है, जो बिना डंक की है। उन्होंने बताया कि इस समय देश में लगभग 27 लाख मधुमक्खियों की कालोनी हैं जिससे 88.9 मैट्रिक टन शहद का वार्षिक उत्पादन हो रहा है। लेकिन देश में प्रति व्यक्ति शहद की जितनी जरूरत है उसकी तुलना में शहद का उत्पादन नहीं हो रहा है। ऐसे में डंकरहित मधुमक्खी पालन से शहद उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है।
निदेशक अनुसंधान केंद्र, डॉ. एस. एन. तिवारी ने बताया कि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों द्वारा विकसित तकनीक से डामर मधुमक्खी पालन से बहुउपयोगी शहद का उत्पादन कर किसानों द्वारा अपनी आय में वृद्धि की जा सकती है।
वहीं कीट विज्ञान विभाग की वैज्ञानिक और मधुमक्खी पालन अनुसंधान एवं प्रशिक्षण केन्द्र की सहायक निदेशक पूनम श्रीवास्तव ने बताया कि डंकरहित मधुमक्खी जिसका वैज्ञानिक नाम टेटरागोनुला इरीडीपेनिस है, जिसम डामर मधुमक्खी भी कहते हैं उसके पालन की तकनीक विकसित की गई है।
दक्षिण भारतीय राज्यों में इसके लिए जलवायु अनुकूल होने के कारण विगत कई वर्षों से इसका पालन पेटिकाओं में किया जा रहा है। डामर मधुमक्खी की शहद उत्पादन क्षमता यद्यपि इटालियन एवं भारतीय मौन की अपेक्षा कम है लेकिन इससे प्राप्त शहद की औषधीय गुणवत्ता काफी अधिक सिद्ध हुई है जिसके कारण इसका मूल्य भी सामान्य शहद की अपेक्षा 8 से 10 गुना अधिक है। डंकरहित होने के कारण इस प्रजाति का पालन महिलाओं द्वारा भी आसानी से किया जा सकता है।
शहद के अतिरिक्त डामर मधुमक्खी से पराग एवं प्रोपोलिस भी प्राप्त किया जा सकता है। विभिन्न फसलों जैसे सूरजमुखी, सरसों, अरहर, लीची, आम, अमरूद, नारियल, कोफ़ी, कद्दूवर्गीय सब्जियां आदि में परागण क्रिया कर उत्पादन वृद्धि में भी इस मधुमक्खी का महत्वपूर्ण योगदान है। ')}